Lekhika Ranchi

Add To collaction

रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद



...
महेंद्रकुमार-कमीने! स्त्रियों पर अत्याचार करना चाहते थे!


जॉन सेवक-यही तो इस ड्रामा का सबसे लज्जास्पद अंश हैं।


महेंद्रकुमार-लज्जास्पद नहीं महाशय, घृणास्पद कहिए।


जॉन सेवक-अब यह बेचारे कहते हैं कि या तो मेरी इस्तीफा लीजिए, या गोदाम की रक्षा के लिए चौकीदारों का प्रबंध कीजिए। स्त्रियाँ इतनी भयभीत हो गई हैं कि वहाँ एक क्षण भी नहीं रहना चाहतीं। यह सारा उपद्रव उसी अंधे की बदौलत हो रहा है।



महेंद्रकुमार-मुझे तो वह बहुत गरीब, सीधा-सा आदमी मालूम होता है; मगर है छँटा हुआ। उसी की दीनता पर तरस खाकर मैंने निश्चय किया था कि आपके लिए कोई दूसरी जमीन तलाश करूँ। लेकिन जब उन लोगों ने शरारत पर कमर बाँधी है और आपको जबरदस्ती वहाँ से हटाना चाहते हैं, तो इसका उन्हें अवश्य दंड मिलेगा।



जॉन सेवक-बस, यही बात है, वे लोग मुझे वहाँ से निकाल देना चाहते हैं। अगर रिआयत की गई, तो मेरे गोदाम में जरूर आग लग जाएगी।


महेंद्रकुमार-मैं खूब समझ रहा हूँ। यों मैं स्वयं जनवादी हूँ और उस नीति का हृदय से समर्थन करता हूँ; पर जनवाद के नाम पर देश में जो अशांति फैली हुई है, उसका मैं घोर विरोधी हूँ। ऐसे जनवाद से तो धनवाद, एकवाद, सभी वाद अच्छे हैं। आप निश्चिंत रहिए।



इसी भाँति कुछ देर और बातें करके राजा साहब को खूब भरकर जॉन सेवक विदा हुए। रास्ते में ताहिर अली सोचने लगे-साहब को मेरी दुर्गति से अपना स्वार्थ सिध्द करने में जरा भी संकोच नहीं हुआ। क्या ऐसे धनी-मानी, विशिष्ट, विचारशील विद्वान् प्राणी भी इतने स्वार्थ-भक्त होते हैं!



जॉन सेवक अनुमान से उनके मन के भाव ताड़ गए। बोले-आप सोच रहे होंगे, मैंने बातों इतना रंग क्यों भरा, केवल घटना का यथार्थ वृत्तांत क्यों न कह सुनाया; किंतु सोचिए, बिना रंग भरे मुझे यह फल प्राप्त हो सकता? संसार में किसी काम का अच्छा या बुरा होना उसकी सफलता पर निर्भर है। एक व्यक्ति राजसत्ता का विरोध करता है। यदि अधिकारियों ने उसका दमन कर दिया, तो वह राजद्रोही कहा जाता है, और प्राणदंड पाता है। यदि उसका उद्देश्य पूरा हो गया, तो वह अपनी जाति का उध्दारकर्ता और विजयी समझा जाता है, उसके स्मारक बनाए जाते हैं। सफलता में दोषों को मिटाने की विलक्षण शक्ति है। आप जानते हैं, दो साल पहले मुस्तफा कमाल क्या था? बागी, देश उसके खून का प्यासा था। आज वह अपनी जाति का प्राण है। क्यों? इसलिए कि वह सफल-मनोरथ हुआ। लेकिन कई साल पहले प्राणभय से अमेरिका भागा था, आज वह प्रधान है। इसलिए कि उसका विद्रोह सफल हुआ। मैंने राजा साहब को स्वपक्षी बना लिया, फिर रंग भरने का दोष कहाँ रहा?



इतने में फिटन बँगले पर आ पहुँची। ईश्वर सेवक ने आते ही आते पूछा-कहो, क्या कर आए?


जॉन सेवक ने गर्व से कहा-राजा को अपना मुरीद बना आया। थोड़ा-सा रंग तो जरूर भरना पड़ा, पर उसका असर बहुत अच्छा हुआ।



ईश्वर सेवक-खुदा, मुझ पर दया-दृष्टि कर। बेटा, रंग मिलाए बगैर भी दुनिया का कोई काम चलता है? सफलता का यही मूल-मंत्र है, और व्यवसाय की सफलता के लिए तो यह सर्वथा अनिवार्य है। आपके पास अच्छी-से-अच्छी वस्तु है; जब तक आप स्तुति नहीं करते, कोई ग्राहक खड़ा ही नहीं होता। अपनी अच्छी वस्तु को अमूल्य, दुर्लभ, अनुपम कहना बुरा नहीं। अपनी औषधि को आप सुधा-तुल्य, रामबाण, अक्सीर, ऋषि-प्रदत्ता, संजीवनी, जो चाहें, कह सकते हैं, इसमें कोई बुराई नहीं। किसी उपदेशक से पूछो, किसी वकील से पूछो, किसी लेखक से पूछो, सभी एक स्वर से कहेंगे कि रंग और सफलता समानार्थक हैं। यह भ्रम है कि चित्रकार ही को रंगों की जरूरत होती है। अब तो तुम्हें निश्चय हो गया कि वह जमीन मिल जाएगी?


जॉन सेवक-जी हाँ, अब कोई संदेह नहीं।


यह कहकर उन्होंने प्रभु सेवक को पुकारा और तिरस्कार करके बोले-बैठे-बैठे क्या कर रहे हो? जरा पाँड़ेपुर क्यों नहीं चले जाते? अगर तुम्हारा यही हाल रहा, तो मैं कहाँ तक तुम्हारी मदद करता फिरूँगा।


प्रभु सेवक-मुझे जाने में कोई आपत्ति नहीं; पर इस समय मुझे सोफी के पास जाना है।


जॉन सेवक-पाँड़ेपुर से लौटते हुए सोफी के पास बहुत आसानी से जा सकते हो।


प्रभु सेवक-मैं सोफी से मिलना ज्यादा जरूरी समझता हूँ।



जॉन सेवक-तुम्हारे रोज-रोज मिलने से क्या फायदा, जब तुम आज तक उसे घर लाने में सफल नहीं हो सके?


प्रभु सेवक के मुँह से ये शब्द निकलते-निकलते रह गए-मामा ने जो आग लगा दी है, वह मेरे बुझाए नहीं बुझ सकी। तुरंत अपने कमरे में आए, कपड़े पहने और उसी वक्त ताहिर अली के साथ पाँड़ेपुर चलने को तैयार हो गए। ग्यारह बज चुके थे, जमीन से आग की लपट निकल रही थी, दोपहर का भोजन तैयार था, मेज लगा दी गई थी; किंतु प्रभु सेवक माता ओर पिता के बहुत आग्रह करने पर भी भोजन पर न बैठे। ताहिर अली खुदा से दुआ कर रहे थे कि किसी तरह दोपहरी यहीं कट जाए, पंखे के नीचे टट्टियों से छनकर आने वाली शीतल वायु ने उनकी पीड़ा को बहुत शांत कर दिया था; किंतु प्रभु सेवक के हठ ने उन्हें यह आनंद न उठाने दिया।









   1
0 Comments